Monday, June 11, 2018

धान की खेती कैसे करें

dhaan ki kheti paddy farming
dhaan ki kheti paddy farming
धान की खेती कैसे करें ? whatsapp 9814388969
धान जिसे चावल भी कहते हैं।  इसकी  खेती ज़्यादातर उत्तर प्रदेश बिहार  और उस  एरिया  में की  जाती है  जहां  पर  पनि  की अधिक  मात्रा  हो।  पंजाब  हरयाणा मैं इसकी खेती  करते  तो हैं लेकिन  ये  पर्यापत जगह नहीं है।   किओंकी  धान पानी  का  सतर नीचे करता है मतलब  ये पानी जियादा  खेींचता है।  लेकिन  फिर  भी  सीधी  बिजाई  और  दुसरे  तरीकों से  धान  की खेती  काम  पनि की  लगत  से  कर  सकते हैं।
धान की खेती  के लिए मौसम में नमि  की मात्रा
अगेती फसलों के लिए 82 to 86 और पिछेती  फसलों  के लिए 66.5 to  68.5 प्रतिशत  तक ही पर्यापत है।
धान की खेती के लिए  तापमान :- धान गर्मी में ही अच्छा  होता  है  . सो  इसके  लिए  तापमान बीस डिग्री से चालीस डिग्री और दान पड़ने की सूरत  मैं पचीस से तीस  डिग्री तापमान मान्य है।
धान की खेती की तैयारी :- बीज  को बीज अमृत या अन्य बीज साधक से बीज का उपचार  करना चाहिए। औार फिर  खेती को अच्छे ढंग  से  लेवल करना चाहिए। पौध  की  तैयारी मधय मई  और रोपाई मद्य जून से स्टार्ट कर देनी चाहिए।
सिफारिश बीज ही बीजें  और  जिनकी मंडी मैं मुसीबत  न  आये। काम पनि के एरिया  में अपने  पानी के लेवल  को  देखते  हुए  फसल बीजें। खादें  जरूरत  के  मुताबिक सलाह से ही डालें जियादा  खाद  जियादा मुसीबत वाली बात  होती है धान के  लिए। जितना कम हो सके केमिकल उसे  करें इस  से आपके मित्र  कीट  मरने  की आशंका रहती है जिस से  दूसरी फसलों पर नुक्सान होने  की सम्भावना बढ़  जाती है। जैविक और  आर्गेनिक  ढंग   से ट्रीटमेंट करें।
हरि खाद  जैसे  जंतर मूंग जैसी फसले  बीज कर  बीच मैं ही र्ल दें और  निट्रोजन की  मात्र  खेत  में  बनाए  और  बहरी खर्च कंट्रोल करें।
और या फिर  गोबर खाद दस तन प्रति एकड़ के हिसाब से डाले।
धान की  किस्में :-
Jaya:-  140 to 145 days 25+Quintal Per acre
PR 106:-     143 to 146 days 23-24 Q
PR 116:-     144 to 146 days 27-28  Q
PR 118:-     157 to160 days 28-29  Q
PR 121:-     142 to 144 days 29-30 Q
PR 122:-     146 to 148 days 30-31 Q
PR 123:-     142 to 144 days 28-29 Q
PR 124:-     134 to 136 days 20-30  Q
धान का बीज उपचार :- बीज का उपचार करने के लिए बीज अमृत या  प्रयोग  करें।
बिजाई का ढंग :- अगेती पौध तीस दिन  और जियादा टाइम  वाली पैंतीस दिन लेती है। पौध को चालीस  से जियादा दिन नहीं रखना चाहिए नहीं तो पौध सही ढंग से काम नहीं करती सही समय की बिजाई के लिए तेंतीस (33) पौधे प्रति वर्ग मीटर और बाद वाले पेंतालिस पौध प्रति वर्ग मीटर लगा  सकते हैं।
पौध को बेड पर  भी लगा सकते हैं। इसमें दो दिन बाद पनि देते  रहे और पौध को 9 cm की दूरी  पर  लगाए। इस ढंग से  पनि की काफी बचत की जा सकती है।
आम तौर  पर खेत को पनि से भर  कर कदु  करें। उसके बाद पचीस किलो यूरिया और सुपर पचास किलो डालें। और पौध लगाए।
नदीन (खरपतवार ):- हो सके  तो  हाथो  से   गुड़ाई  निराई  करके  ही निकलें। या फिर पेस्टिसाइड वालो सो मदद मांगे
सीधी  बिजाई :- सीधी बिजाई गेहूं की मशीन या  नीचे दी गई मशीन से भी कर   सकते हैं। जिस से लेबर  कम  लगती है और बीज भी सही जगह पर  गिरता है। जो की बीस  सेंटीमीटर पर  होना चाहिए। सिद्धि बिजाई में बीज  जियादा नीचे  नहीं डालना चाहिए।

गेहूँ और राई में वृद्धि एवं फास्फोरस उपयोग क्षमता पर उच्च कार्बन डाइऑक्साइड एवं फास्फोरस-पोषण के परस्पर-क्रियात्मक प्रभाव

सारांश:


इस अनुसंधान कार्य में गेहूँ और राई में वृद्धि एवं फास्फोरस उपयोग क्षमता पर उच्च कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) एवं फास्फोरस पोषण के परस्पर क्रियात्मक प्रभावों का अध्ययन किया गया। गेहूँ (पी.बी.डब्ल्यू- 396, पी.बी.डब्ल्यू- 233) एवं राई (डब्ल्यू.एस.पी- 540-2) को न्यून (2 माइक्रो मोलर) एवं पर्याप्त (500 माइक्रो मोलर) फास्फोरस के साथ परिवेशी (38±10 माइक्रोमोल प्रति मोल, aCO2) एवं उच्च CO2 (700 माइक्रोमोल प्रति मोल, aCO2) सान्द्रताओं के अंतर्गत उगाया गया। परिणामों से ज्ञात हुआ कि CO2 एवं फास्फोरस स्तरों द्वारा प्ररोह, जड़ एवं सकल पादप शुष्क पदार्थ संचयन तथा वितरण महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित हुए। पर्याप्त फास्फोरस के अंतर्गत उगाए गए aCO2 पौधों की तुलना में पी.डी.डब्ल्यू- 233 में aCO2 के कारण प्ररोह शुष्क पदार्थ में 27 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई। न्यून फास्फोरस के साथ eCO2 के अंतर्गत उगाए गए पौधों में शुष्क पदार्थ का जड़ की ओर वितरण अधिक था जिसके परिणामस्वरूप जड़ से प्ररोह का अनुपात अधिकतम था।

राई में aCO2 की तुलना में पर्याप्त फास्फोरस सहित eCO2 के अंतर्गत उगाए गए पौधों का कुल पर्ण क्षेत्रफल 71 प्रतिशत अधिक था। aCO2 की तुलना में न्यून फास्फोरस के साथ eCO2 के अंतर्गत उगाए गए पौधों का पार्श्व जड़ घनत्व, लम्बाई एवं सतह क्षेत्रफल महत्त्वपूर्ण रूप से ज्यादा पाया गया। aCO2 की तुलना में पर्याप्त फास्फोरस सहित eCO2 के अंतर्गत पौधों को उगाने पर कुल फास्फोरस उदग्रहण में 70 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई। फास्फोरस उपयोग क्षमता (फा.उ.क्ष.) में न्यून फास्फोरस सहित eCO2 में 26 प्रतिशत तक बढ़ोतरी पाई गई। न्यून फास्फोरस सहित eCO2 में उगाये गये सभी प्रजातियों में पी.बी.डब्ल्यू-396 में अधिकतम फा.उ.क्ष. देखी गई। इन परिणामों से ज्ञात हुआ कि बढ़ते हुए वातावरणीय CO2 स्तरों के अंतर्गत न्यून फास्फोरस परिस्थितियों में भी फास्फोरस पोषण एवं इसके सक्षम उपयोग की दृष्टि से अनाज अधिक अनुक्रियाशील होंगे।

Abstract


An attempt was made to study the interactive effects of phosphorus (P) nutrition and elevated CO2 on growth and P-utilization efficiency (PUE) in wheat and rye. Wheat (PBW-396, PDW-233) and rye (WSP-540-2) were grown at low (2µM) and sufficient (500 µM) P under ambient (380± 10 µmol mol-aCO2) and CO2 concentrations (700 µmol mol-aCO2) Results revealed that shoot, root and total plant dry matter accumulation and partitioning were significantly influenced by CO2 and P-levels. eCO2 increased shoot dry matter up to 27% in PDW-233 compared to aCO2 plants grown under sufficient P. Partitioning of dry matter towards root was higher in plants raised under eCO2 with low P resulting in maximum root-to-shoot ratio. Total leaf areas was 71% higher in rye under eCO2 with sufficient P compared to eCO2. Significantly higher lateral root density, length and surface area were noted in plants grown at low-P under eCO2 as compared to eCO2. The total P uptake was increased by 70% when plants were raised with sufficient P under eCO2 in comparison to aCO2 while the PUE increased by 26% in response to CO2 enrichment at low P. Among cereals grown at low. P, highest PUE was observed in PBW-396 in response to elevated CO2. These finding suggests that cereals would be more responsive to P nutrition and efficient in its utilization even at low-P conditions under rising atmospheric CO2 levels.

प्रस्तावना


खाद्य सुरक्षा एवं आर्थिक विकास की राह में जलवायु परिवर्तन और पोषण उपलबधता, दो गम्भीर चुनौतियाँ हैं। परिवेशी CO2 सान्द्रताएं जो औद्योगीकरण पूर्व समय में लगभग 280 पी.पी.एम. थी अब 398 पी.पी.एम. हो चुकी है। जीवाश्म ईंधनों के प्रज्वलन तथा बदलते भू-उपयोग ढंग के कारण यह बढ़ोतरी आगे भी जारी रहेगी। एक अनुमान के अनुसार इस शताब्दी के मध्य में CO2 का यह आंकड़ा 550 पी.पी.एम. तथा शताब्दी के अंत तक 700 पी.पी.एम. को पार कर जाएगा। दीर्घावधि में उच्च परिवेशी CO2 के प्रति पौधों की वृद्धि संबंधी अनुक्रियाएं अन्य पर्यावरणीय कारकों यथा जल, तापमान एवं पोषण उपलब्धता से सीधे प्रभावित होती हैं। बढ़ रही परिवेशी CO2 पादप वृद्धि को बढ़ा सकती है तथा पोषण संबंधी उसकी आवश्यकताओं में परिवर्तन कर सकती है। यह देखा गया है कि वातावरण में CO2 बढ़ने से माध्यमिक पोषण अपर्याप्तता के अंतर्गत प्रायः पादप वृद्धि दरों में बढोतरी होती है किंतु यह उतनी नहीं होती जितनी पर्याप्त पेाषण की परिस्थितियों में होती है। इस प्रकार से यह प्रदर्शित होता है कि पर्यावरणीय CO2 सान्द्रताओं के बढ़ने से पादप वृद्धि में बढ़ोतरी हो सकती है और उनकी पोषण संबंधी आवश्यकताओं में परिवर्तन हो सकता है।

फास्फोरस एक अत्याआवश्यक पोषक तत्व है। जिसकी सभी जीवों को आवश्यकता होती है किंतु इसकी उपलब्धता पौधों को कम होती है क्योंकि इसका मृदा में उच्च स्तरीय स्थिरीकरण होता है। दूसरा कारण यह है कि फास्फोरस स्वतः आपूर्ति संसाधन नहीं है। एडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट (ए.टी.पी.) के रूप में उच्च ऊर्जाबोंड्स एवं जैव झिल्लियों के बनाने में फास्फोरस का समावेश होता है। तथा अनेक उपापचयी अभिन्न घटक हैं। अकार्बनिक फास्फोरस की स्थाई कमी की अनुक्रिया में पौधों ने फास्फोरस प्रतिबल का आकारिकीय, कार्यिकीय एवं आण्विक स्तरों पर सामना करने के लिये अनेक अनुकूलन रणनीतियाँ विकसित की हैं। इनमें जड़ वृद्धि एवं उनका निकलने का ढंग, उच्च-बंधुता (high-affinity) वाले फास्फोरस परिवाहकों का आवाहन, एसिड फॉस्फेटेज एन्जाइम का अधिक स्राव एवं कम अणुभार के कार्बनिक अम्ल, माइक्रोराइजा कवकों के साथ सहजीवी संबंधों तथा कई मुख्य प्रकाश संश्लेषण संबंधी एन्जाइम्स सम्मिलित हैं। यह सुझाव दिया गया है कि परिवेशी CO2 के अंतर्गत उगाये गये पौधों की तुलना में उच्च CO2 में उगाये गये पौधे की फास्फोरस आवश्यकता अधिक होगी, क्योंकि CO2 की अनुक्रिया स्वरूप पौधों विशेष रूप से C3 पौधों में प्रकाश संश्लेषण दर बढ़ जाती है। इस प्रकार से उपयुक्त तथ्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि भविष्य की बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों में इस बात की सम्भावना है कि फास्फोरस उद्ग्रहण हेतु उच्च स्तरीय उपापचयी आवश्यकता के कारण यह पोषक तत्व अनुक्रियाशील होगा। प्रस्तुत अध्ययन में फास्फोरस पोषण एवं उच्च CO2 के पारस्परिक क्रियात्मक प्रभावों के प्रति गेहूँ एवं राई की वृद्धि अनुक्रिया के अध्ययन का प्रयास किया गया है।

चूँकि लगभग सभी उपापचयी प्रक्रियाओं में फास्फोरस का समावेश होता है इसलिये विभिन्न वृद्धि गुणों के मॉड्यूलेशन के माध्यम से यह परिकल्पना की गई कि उच्च CO2 के अंतर्गत फास्फोरस की आवश्यकता अधिक होगी। उपलब्ध मृदा फास्फोरस के पर्याप्त एवं न्यून स्तरों के अंतर्गत पहले से किए गए विविक्तकर निरीक्षण प्रयोग से गेहूँ की दो प्रजातियों पी.बी.डब्ल्यू-396 एवं पी.बी.डब्ल्यू-233 का वरण किया गया। मृदा से ऊपर जैव पदार्थ एवं दाना उपज की दृष्टि से इन दोनों प्रजातियों का प्रदर्शन अच्छा था। इस प्रयोग में राई को भी तुलना हेतु सम्मिलित किया गया क्योंकि यह सूचना है कि यह फास्फोरस उद्ग्रहण में काफी सक्षम हैं।

सामग्री एवं विधि


पादप पदार्थ एवं वृद्धि परिस्थितियाँ: भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के आनुवंशिकी संभाग से गेहूँ की प्रजातियाँ, पी.बी.डब्ल्यू-396 एवं पी.डी.डब्ल्यू-233 तथा राई की प्रजाति डब्ल्यू.एस.पी-540-2 प्राप्त की गई। इन प्रजातियों का 0.1 प्रतिशत मरक्यूरिक क्लोराइड के साथ सतह निर्जमीकरण कर उन्हें अंकुरण कागज पर उगाया गया। प्रांकुर चोल के बर्हिगमन (बुवाई के 5-6 दिन बाद), पौध को न्यून (2 माइक्रो मोलर) एवं पर्याप्त (500 माइक्रो मोलर) फास्फोरस स्तरों वाले हॉगलैंड घोल में स्थानान्तरित कर दिया गया। प्रयोग किए गए पोषक घोल की संरचना में (मिली मोलर) : Ca(NO3)2 1.5, KNO3 5.0, NH4 (NO3) 2 1.0, MgSO4 2.0 (माइक्रो मोलर) : H3BO3 1.0, MnCI2 .4H2 O 0.5, ZnSO4. 7H2O1.0, CuSO4 .5H2O 0.2 (NH4)6 Mo7O24 .4H2O0 0.075 एवं FeC13 + EDTA थे। फास्फोरस की आपूर्ति 1.0 मोलर ऑर्थोफास्फोरस अम्ल के रूप में की गई और इस पोषक घोल का मान KOH द्वारा 5.6 रखा गया।

एक्वेरियम पम्प का उपयोग कर घोल में सतत रूप से वायु प्रवाहित की गई और एक दिन छोड़कर प्रत्येक तीसरे दिन इस घोल को ताजे घोल से बदला गया। यह सारा सेट भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के राष्ट्रीय फायटोट्रोन सुविधा केंद्र में रखा गया। इन कक्षों में CO2 को छोड़कर अन्य वृद्धि परिस्थितियाँ निम्न प्रकार से रखी गई थीं: दिन/रात का तापमान 22 डिग्री सेल्सियस/12 डिग्री सेल्सियम, 450 माइक्रोमोल प्रति वर्ग मीटर प्रति एस (पी.ए.आर.) के फोटोन फ्लक्स घनत्व के साथ 10 घंटे प्रकाशावधि तथा आपेक्षिक आर्द्रता (आर.एच.) 90 प्रतिशत थी। उच्च CO2(eCO2) (700 माइक्रोमोल प्रति मोल) बनाए रखा गया तथा परिवेशी (38±10 माइक्रोमोल प्रति मोल) CO2(aCO2) थी।

वृद्धि एवं जैव रासायनिक विश्लेषण: जड़ आकारिकी तथा अन्य वृद्धि प्राचलों के अध्ययनार्थ eCO2 एवं aCO2 के अंतर्गत पर्याप्त अथवा न्यून फास्फोरस के साथ उपयुक्त विधि द्वारा 15 दिन आयु के पौधे तैयार किए गए। जड़ आकारिकी से संबंधित प्राचल जैसे कि जड़ की लम्बाई का आमापन पैमाने की सहायता से किया गया और उसे से.मी. प्रति पौधा के रूप में अभिव्यक्त किया गया तथा प्राथमिक एवं द्वितीयक जड़ों की गणना प्रति पौधा आधार पर की गई। पार्श्व जड़ों की गणना 8 दिन आयु के पौधों में की गई पार्श्विक जड़ घनत्व की गणना भी की गई जिसे प्रति इकाई जड़ लम्बाई पर पार्श्विक जड़ों की संख्या के रूप में अभिव्यक्त किया गया। इस प्रकार के निरीक्षण 10 पौधों में रिकार्ड किए गए। अंसारी एवं सहयोगी द्वारा दी गई विधि के अनुसार जड़ सतह क्षेत्रफल ज्ञात किया गया।

जड़ सतह क्षेत्रफल के आमापन हेतु 5 पौधों के समावेश वाली चार प्रतिकृतियों का उपयोग किया गया। गुणांक 40.36 माइक्रोमोल NO2- से सतह क्षेत्रफल की गणना की गई जो 100 वर्ग से.मी. जड़ तरह क्षेत्रफल के बराबर है और इसे वर्ग से.मी. प्रति पौधा के रूप में अभिव्यक्त किया गया। पौधों के जड़ एवं प्ररोह अलग-अलग कर उन्हें गर्म हवा वाले ओवन में 65 डिग्री सेल्सियस पर तब तक शुष्क किया गया जब तक एक स्थिर शुष्क भार हो गया। प्ररोह, जड़ एवं सकल पौधा जैवमात्रा प्राप्त की गई। और उसे मिग्रा. प्रति पौधा के रूप में अभिव्यक्त किया गया। जड़ एवं प्ररोह के बीच अनुपात की गणना की गई। पर्णक्षेत्र मीटर (लीफ एरिया मीटर, लाइकोर 3000) का उपयोग कर कुल पर्ण क्षेत्रफल का आमापन किया गया और उसे वर्ग सेमी. प्रति पौधा के रूप में अभिव्यक्त किया गया।

डाइ एसिड के साथ नम-पाचन कर 660 नैमी पर नील-वर्ण फॉस्फोमॉलिब्डेट कॉम्प्लेक्स के अवशोषणांक का आमापन कर जड़ एवं प्ररोह ऊतकों में फास्फोरस की सान्द्रता ज्ञात की गई। फास्फोरस उपयोग क्षमता (फा.उ.क्ष.) की गणना के लिये सकल पौधा जैव मात्रा को कुल फास्फोरस उदग्रहण प्रति पौधा से भाग कर दिया गया और उसे ग्राम शुष्क पदार्थ प्रति मिग्रा. फास्फोरस उद्ग्रहण के रूप में अभिव्यक्त किया गया।

सांख्यिकीय विश्लेषण: इस प्रयोग में तीन कृषिजोपजातियों: CO2 एवं फास्फोरस, प्रत्येक के दो स्तरों के साथ चार प्रतिकृतियों का समावेश था। तीन फैक्टर फैक्टोरियल सहित पूर्णतया यादृच्छिक डिजाइन (सी.आर.डी.) में यह प्रयोग किया गया। एम.एस.टी.ए.ठी. प्रोग्राम का उपयोग कर आंकड़ों का प्रसरण विश्लेषण किया गया। 5 एवं 1 प्रतिशत संभाविता (P<0.05, 0.01) स्तर पर सांख्यिकीय महत्व ज्ञात किया गया। क्रांतिक भिन्नता (CD at P<0.05, 0.01) द्वारा माध्यों की तुलना की गई और उसके बाद एक सार्थक एफ-टैस्ट किया गया।

परिणाम एवं विवेचना


विभिन्न प्रजातियों, फास्फोरस एवं CO2 स्तरों के मध्य, प्ररोह, जड़ एवं कुल पादप शुष्क पदार्थ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भिन्नताएं थीं। CO2 एवं फास्फोरस उपचारों में पी.डी.डब्ल्यू-233 एवं राई की तुलना में पी.बी.डब्ल्यू-396 ने अधिकतम औसत प्ररोह शुष्क मात्रा दर्शायी (सारणी-1) उन प्रजातियों के पौधों में औसत प्ररोह शुष्क मात्रा अधिकतम थी जिन्हें पर्याप्त फास्फोरस के साथ eCO2 के अंतर्गत उगाया गया। पी.बी.डब्ल्यू-396, पी.डी.डब्ल्यू-233 एवं राई, तीनों के प्ररोहों में शुष्क मात्रा के संचयन में पर्याप्त फास्फोरस एवं aCO2 के अंतर्गत उगाये गये पौधों की तुलना में उच्च CO2 के कारण क्रमशः 26, 27 एवं 14 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। CO2 एवं फास्फोरस स्तरों पर औसत जड़ शुष्क पदार्थ, पी.बी.डब्ल्यू-396, में अधिकतम और राई में न्यूनतम था (सारणी 1) aCO2 की तुलना में eCO2 के अंतर्गत न्यून फास्फोरस के साथ उगाए गए पौधों के जड़ शुष्क पदार्थ में एक महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी (49 प्रतिशत) रिकॉर्ड की गई। पर्याप्त फास्फोरस आपूर्ति के अंतर्गत कुल पादप शुष्क भार संचयन पर उच्च CO2 का धनात्मक प्रभाव देखा गया (सारणी 2) पर्याप्त फास्फोरस के साथ उगाए गए पौधों में उच्च CO2 की अनुक्रिया स्वरूप प्रति पौधा कुल शुष्क पदार्थ में बढ़ोतरी (23 प्रतिशत) देखी गई।

वैसे जब प्रजातियों एवं फास्फोरस स्तरों से संबंधित औसत देखा जाय तो aCO2 के अंतर्गत उगाए गए पौधों की तुलना में eCO2 की अनुक्रिया के परिणामस्वरूप प्ररोह, जड़ एवं कुल पादप शुष्क पदार्थ में क्रमशः 33, 38 एवं 34 प्रतिशत की बढ़ोतरी पायी गई। सभी प्रजातियों में न्यून फास्फोरस के साथ CO2 स्तरों से अप्रभावित अधिक जड़ से प्ररोह का अनुपात अधिक रिकार्ड किया गया (सारणी-2)। राई में aCO2 की तुलना में eCO2 के अंतर्गत न्यून फास्फोरस के साथ जड़ की ओर शुष्क पदार्थ का वितरण अधिक हुआ जिससे जड़ से प्ररोह अनुपात में 60 प्रतिशत बढ़ोतरी हुईं। पहले की सूचनाएं भी बताती हैं कि यदि खनिज पोषण आपूर्ति पर्याप्त हो तो CO2 आपूर्ति दोगुना करने का विभिन्न प्रजातियों में शुष्क पदार्थ संचयन पर प्रभाव अधिकतम होता है। इसी प्रकार की परिस्थितियों में गेहूँ एवं जौ पर किए गए प्रयोग भी हमारे परिणामों की पुष्टि करते हैं, हालाँकि राई के विषय में ऐसी सूचनाएं उपलब्ध नहीं हैं।

यह सर्वविदित है कि सीमित फास्फोरस आपूर्ति के अंतर्गत, जड़ वृद्धि में बढ़ोतरी होती है जिसके परिणामस्वरूप जड़ से प्ररोह का अनुपात बढ़ जाता है। इस अध्ययन में भी सीमित फास्फोरस आपूर्ति के अंतर्गत शुष्क पदार्थ संचयन जड़ वृद्धि के अनुकुल रहा जिसमें उच्च CO2 के अंतर्गत और अधिक बढ़ोतरी हुई। फास्फोरस एवं eCO2 के विभिन्न स्तरों के साथ धान के पौधों के विषय में भी ऐसी ही सूचनाएं हैं जिनमें न्यून फास्फोरस एवं उच्च CO2 से जड़ों की ओर शुष्क पदार्थ का वितरण बढ़ गया। जड़ से प्ररोह अनुपात में बढोतरी का कारण नियंत्रित पोषक तत्व संबंधी उपचारों में जड़ शुष्क पदार्थ की तुलना में प्ररोह शुष्क पदार्थ का काफी हद तक सीमित संचयन था पोषण की कमी की अनुक्रिया में जड़ वृद्धि का अधिक होना पौधे के लिये लाभकारी है जो उपलब्ध खनिज आपूर्ति को पौधे द्वारा प्राप्त कर उपयोग करने में सहायक होता है।

गेहूँ का आधार एवं प्रमाणित बीजोत्पादन


गेहूँ की खेतीगेहूँ की खेतीआधार बीज तैयार करने के लिये प्रजनक बीज किसी प्रमाणीकरण संस्था के मान्य स्रोत से प्राप्त किया जा सकता है। बोने से पहले थैलों पर लगे लेबल से बीज के किस्म की शुद्धता की जाँच कर लेनी चाहिए और लेबल को सम्भालकर रखना चाहिए।


निबन्धन


जिस खेत में बीजोत्पादन करना हो उसका निबन्धन राज्य बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा करवाना चाहिए। गेहूँ स्वंय- परागित फसल है, अतः प्रमाणित बीज उत्पादन के लिये प्रमाणीकरण शुल्क मात्र 175 रुपया प्रति हेक्टेयर एवं निबन्धन शुल्क 25 रुपया प्रति हेक्टेयर है।

खेत का चयन


गेहूँ के बीज उत्पादन के लिये ऐसे खेत का चुनाव करना चाहिए, जिसमें पिछले मौसम में गेहूँ न बोया गया हो। अगर विवशतावश वही खेत चुनाव करना पड़े तो उसी प्रभेद को उस खेत में लगाना चाहिए जो कि पिछले मौसम में बोया गया था और बीज की आनुवंशिक शुद्धता प्रमाणीकरण मानकों के अनुरूप थी। खेत की मृदा उर्वक, दोमट हो एवं जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।

उन्नत प्रभेद


उत्पादन तकनीकी का सबसे अहम पहलू उपयुक्त किस्म का चुनाव होता है। झारखण्ड राज्य के लिये अनुशंसित किस्में सिंचित समय पर बुआई के लिये एच.यू.डब्ल्यू. 468, के 9107 एवं बिरसा गेहूँ 3 हैं। इन किस्मों की उपज क्षमता 40-45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। सिंचित विलम्ब से बुआई के लिये एच.यू.डब्ल्यू. 234, एच.डी. 2643 (गंगा) एवं बिरसा गेहूँ 3 है। इनकी उपज क्षमता 35-40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।

पृथक्करण


गेहूँ एक स्वंय- परागित फसल हैं अतः बीजोत्पादन के लिये गेहूँ के एक खेत से दूसरे प्रभेद के खेतों से दूरी कम-से-कम 3 मीटर होनी चाहिए। लेकिन अनावृत्त कण्ड (लूज स्मट) से सक्रंमित गेहूँ रोग से बचाव के लिये न्यून्तम पृथक्करण दूरी 150 मीटर रखना चाहिए, अन्यथा आपके खेत भी संक्रमित हो सकते हैं।

बीज दर एवं बीजोपचार


बीजोत्पादन के लिये बीज कम मात्रा में प्रयोग किया जाता है। इसके लिये 90-100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर उपयुक्त है। सीड ड्रील से गेहूँ की बुआई करनी चाहिए, इससे समय के साथ-साथ पैसे की भी बचत होती है। बीज हमेशा विश्वसनीय संस्थानों से ही खरीदना चाहिए। बुआई के पहले बीज को फफूंदी नाशक दवा विटावेक्स या रैक्सिल 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।

बुआई का समय


सिंचित अवस्था में समय से बुआई के लिये उपयुक्त समय 1 नवम्बर से 15 नवम्बर एवं सिंचित विलम्ब से बुआई के लिये उपयुक्त समय 1 दिसम्बर से 25 दिसम्बर तक।

रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग


अच्छी उपज हेतु उन्नत प्रभेदों के लिये 220 किलो ग्राम यूरिया, 312 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट एवं 42 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति हेक्टर की दर से व्यवहार करें। यूरिया की आधी मात्रा तथा सिंगल सुपर फॉस्फेट एवं म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय दें। यूरिया की शेष आधी मात्रा बुआई के 20-25 दिनों (पहली सिंचाई) के बाद उपरिवेशन के द्वारा डालें। मिट्टी के जाँच के आधार पर ये मात्राएँ कम की जा सकती हैं। दाना बनते समय यूरिया के 2.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव करने से दाने का विकास अच्छा होता है।

सिंचाई


बीज उत्पादन के लिये कम-से-कम छः सिंचाई की आवश्यकता होती है। प्रथम सिंचाई मुख्य जड़ बनना शुरू होने पर (बुआई से 20-25 दिन बाद), दूसरी सिंचाई कल्ले फूटने के समय (बुआई से 40-45 दिन बाद), तीसरी गाँठ बनने की अन्तिम अवस्था (बुआई से 60-65 दिन बाद), दिन बाद, चौथी फूल आने के समय (बुआई से 80-85 दिन बाद), पाँचवीं सिंचाई दूध भरते समय (बुआई से 100- 105 दिन बाद) और छठवीं सिंचाई (बुआई से 110-115 दिन बाद) दाने सख्त होने पर करनी चाहिए। अगर वर्षा हो जाये तो उस सिंचाई को नहीं भी कर सकते हैं। सिंचाई की संख्या भूमि की किस्म पर भी निर्भर करता है, अगर भूमि बलुई हो तो सिंचाई अधिक करनी पड़ती है।

खरपतवार नियंत्रण


उच्च गुणवता वाले बीजोत्पादन के लिये खरपतवार नियंत्रण प्रभावी तरीके से किया जाना आवश्यक है। खरपतवार बीजों की उपज तथा गुणवत्ता को काफी हद तक प्रभावित करते हैं तथा फसलों के बीज को दुषित करते हैं। चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिये 2,4 डी. 0.5 किलोग्राम 750 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर बुआई के 25-30 दिन बाद छिड़काव करें। फेलरिस माइनर घास गेहूँ के साथ अंकूरित होता है और बाली आने से पहले पहचानना कठिन होता है, अतः इसकी रोकथाम के लिये गेहूँ की बुआई के 30 दिन बाद आइसोप्रोट्यूरॉन (75 डब्ल्यू.पी.) एक किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर 700-800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़कना चाहिए।

रोग नियंत्रण


काला किट्ट (हरदा)


इस रोग के मुख्य लक्षण तनों, पत्तियों एवं पर्णच्छदों पर लम्बे, लाल-भूरे से काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं जो जल्द फट जाते हैं और भूरा चूर्ण निकलता है। इसके नियंत्रण के लिये जिनेब या इण्डोफिल एम 45 का 0.2 प्रतिशत घोल बनाकर 15 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें।

अनावृत कण्ड (लूज स्मट)


इस रोग से ग्रस्त पौधों की सभी बलियाँ काले चूर्ण का रूप ले लेती हैं, और उनमें दाने नहीं बनते हैं। इस रोग से बचाव के लिये बीजों का बीजोपचार कवकनाशी दवा से करें।

हेलमेन्थोस्पोरियम


इस रोग से ग्रस्त पौधों के पत्तियों पर पीली धारियाँ हो जाती हैं एवं बाद में धारियों का रंग भूरा हो जाता है। बीज का बीजोपचार बैविस्टीन या थीरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज के दर से करना चाहिए।

कीट नियंत्रण


कीड़ों से बचाव के लिये 1-1.25 लीटर थायोडॉन या 750 मि.ली. इकालक्स (25 प्रतिशत ई. सी.) का छिड़काव करें। दीमक से बचाव के लिये क्लोरपाइरीफॉस 20 ई.सी. से बीजोपचार करें। एक किलो गेहूँ के बीज के लिये 5 मि. ली. क्लोरपाइरीफॉस दवा की आवश्यकता होती है। खेत की अन्तिम तैयारी के समय लिन्डेन 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का व्यवहार करें। खड़ी फसल में दीमक का आक्रमण होने पर क्लोरपाइरीफॉस 20 ई.सी. दवा की मात्रा 2.5 लि. 800-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़कना चाहिए।

अवांछनीय पौधों को निकालना


एक ही प्रभेद में अलग तरह के दिखने वाले पौधों को जड़ से उखाड़कर खेत से हटा देना चाहिए। यह बीजोत्पादन के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। भिन्न से दिखने वाले पौधे किसी दूसरी किस्म के हो सकते हैं, इसलिये इन्हें समय-समय पर हटाते रहना चाहिए। पौधों की ऐसी असमानता पौधे की ऊँचाई, पत्तियों की बनावट, फूल खिलने तथा फसल पकने की अवधि आदि में दिखाई देता है। गेहूँ के कंडुवाग्रस्त पौधों को उनमें बालों के समय पहचानकर निकाला जाता है। कंडुवाग्रस्त पौधों की बालियों को पहले लिफाफे के निचले हिस्से को मुट्ठी से बन्द करने के बाद उखाड़ना चाहिए, जिससे उखाड़ते समय बीजाणु खेत में नहीं गिरेंगे। बाद में उन्हें जला या गड्ढों में दबा देना चाहिए।

बीज फसल का निरीक्षण


बीज फसल के खेतों के पौधों तथा आपत्तिजनक खरपतवारों की उपस्थिति, पृथक्करण दूरी तथा रोग के आँकड़े एकत्र कर यह देखा जाता है कि वह निर्धारित मानकों के अनुरूप है या नहीं। प्रायः निरीक्षण का कार्य बुआई के समय, पुष्पन पूर्व, पुष्पन अवस्था पर, फसल पकते समय एवं कटाई के समय किये जाते हैं। बीज निरीक्षण द्वारा सभी पहलूओं के सही होने पर तथा बीजों की स्वस्थता एवं शुद्धता पर ही बीज प्रमाणीकरण एजेंसी द्वारा आधार बीज के लिये सफेद टैग एवं प्रमाणित बीज के लिये नीला टैग निर्गत किया जाता है।

फसल की कटाई


बीज फसल की कटाई करते समय बीज में नमी की मात्रा 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। फसलों की कटाई तथा दौनी के समय बहुत ही सावधानी बरतने की आवश्यकता है, क्योंकि बीजों में खरपतवार के बीज मिल सकते हैं। खलिहान साफ-सुथरा होने चाहिए, अगर खलिहान पक्का हो तो और भी अच्छा है जिससे अक्रिय पदार्थों की मात्रा कम हो जाएगी। ऐसा नहीं होने से बीज दूषित हो जाते हैं तथा उनकी गुणवत्ता का स्तर गिर जाता है।

दौनी


बीज फसल की विभिन्न किस्मों की दौनी अलग खलिहान में करनी चाहिए जिससे अपमिश्रण नहीं होने पाये। दौनी का कार्य तब शुरू करें जब बीज में नमी की मात्रा 14 प्रतिशत से कम हो जाये। दौनी से पूर्व दौनी यंत्र को अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिए, जिससे उसमें पहले दौनी की गई किस्म के दाने न रह गए हों। पुनः ग्रेडर के द्वारा शुद्ध एवं स्वस्थ बीजों को अलग कर लेना चाहिए तथा खखरी, धूल, भूसा खराब एवं हल्के दाने, कंकड़, पत्थर इत्यादि को हटा देना चाहिए। पुनः बीजों को अच्छी तरह सूखा लें एवं नमी की मात्रा 10-12 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहने दें। इसके बाद बीजोपचार के लिये वीटावेक्स 75 डब्लू.पी. की 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज या रैक्सिल 2 डी.एस. को 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से प्रयोग करें। अब बीजों को साफ-सुथरे बोरों में पैक करें तथा प्रत्येक बोरों में 40 किलोग्राम बीज रखें।

बोराबन्दी तथा लेबलिंग


बीजोपचार के बाद बीजों कोे उचित आकार के बोरों में भरा जाता है। इन बोरों पर निम्नलिखित जानकारियाँ होती हैं जैसे प्रभेद का नाम, बीज का प्रकार आनुवांशिक शुद्धता, अंकुरण प्रतिशत अंकुरण क्षमता के परीक्षण की तिथि, अक्रिय पदार्थों का प्रतिशत, बीज भरने की तिथि।

भण्डारण


बीज भण्डारण के लिये गोदाम ऊँचे स्थान पर होना चाहिए, फर्श कंक्रीट का बना हो, दीवारों में दरार न हों, सुरक्षित एवं स्वच्छ होना चाहिए। बोरे दीवारों से सटे नहीं होने चाहिए। पन्द्रह से बीस दिन के अन्तराल पर गोदाम निरीक्षण करते रहना चाहिए।

FARMING

Farming

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Farming in Ancient Egypt
Farming is growing crops or keeping animals by people for food and raw materials. Farming is a part of agriculture.
Agriculture started thousands of years ago, but no one knows for sure how old it is.[1] The development of farming gave rise to the Neolithic Revolution whereby people gave up nomadic hunting and became settlers in what became cities.
Agriculture and domestication probably started in the Fertile Crescent (the Nile Valley, The Levant and Mesopotamia).[2] The area called Fertile Crescent is now in the countries of Iraq, Syria, Turkey, Jordan, Lebanon, Israel, and Egypt. Wheat and barley are some of the first crops people grew. People probably started agriculture slowly by planting a few crops, but still gathered many foods from the wild. People may have started farming because the weather and soil began to change. Farming can feed many more people than hunter-gatherers can feed on the same amount of land.

Contents

Kinds of farming

Agriculture is not only growing food for people and animals, but also growing other things like flowers and nursery plants, manure or dung, animal hides (skins or furs), leather, animals, fungi, fibers (cotton, wool, hemp, and flax), biofuels , and drugs (biopharmaceuticals, marijuana, opium).
Many people still live by subsistence agriculture, on a small farm. They can only grow enough food to feed the farmer, his family, and his animals. The yield is the amount of food grown on a given amount of land, and it is often low. This is because subsistence farmers are generally less educated, and they have less money to buy equipment. Drought and other problems sometimes cause famines. Where yields are low, deforestation can provide new land to grow more food. This provides more nutrition for the farmer's family, but can be bad for the country and the surrounding environment over many years.
In rich countries, farms are often fewer and larger. During the 20th century they have become more productive because farmers are able to grow better varieties of plants, use more fertilizer, use more water, and more easily control weeds and pests. Many farms also use machines, so fewer people can farm more land. There are fewer farmers in rich countries, but the farmers are able to grow more.
This kind of intensive agriculture comes with its own set of problems. Farmers use a lot of chemical fertilizers, pesticides (chemicals that kill bugs), and herbicides (chemicals that kill weeds). These chemicals can pollute the soil or the water. They can also create bugs and weeds that are more resistant to the chemicals, causing outbreaks of these pests. The soil can be damaged by erosion (blowing or washing away), salt buildup, or loss of structure. Irrigation (adding water from rivers) can pollute water and lower the water table. These problems have all got solutions, and modern young farmers usually have a good technical education.